तारीख खुद को दोहराती है
शहर में उर्दू अदब का एक बड़ा नाम उस्ताद इनायतउल्ला खान "बेनाम" साहब की यह गज़ल अपने आप में इसकी पुष्टि करती है। साल 1977 में स्व. मोरारजी देसाई के पहली बार गैर कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री बनने के बाद लिखी उनकी यह गज़ल आज भी मौज़ू है।
सिक्का जमा रहा है हर एक अपने फ़न का
क्या हाल होगा यारों अब अपने अंजुमन का
जनता ने दे दिया फिर आपको ये मौका
सूखा रहे न कोई पौधा मेरे चमन का
झूठी बड़ाइयों से हासिल तो कुछ नहीं है
कुछ काम कीजिएगा इस मादरे वतन का
जनता को लूटकर जो भरते रहे तिजोरी
कैसे हिसाब देंगे बेचारे काले धन का
बेनाम जब मरे तो झंडा लपेट देना
होने न पाए यारों चंदा मेरे कफन का
फरहत सराय की एक दुकान में अभी भी सिलाई का काम करने वाले इस बुजुर्ग से उनके शागिर्द व हमारे साथी श्री Mukesh R. Pandey जी के साथ करीब आठ महीने पूर्व पहली बार मिला तो यह जानकर मन भर गया कि गरीबी कैसे हुनर को खा जाती है। चौथी जमात तक पढ़े उस्ताद तब अपनी कक्षा के एक मात्र होनहार छात्र थे। स्कूल के एक शिक्षक उनके अद्भुत भाषाई ज्ञान से इतने प्रभावित हुए कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मय वजीफे के पढ़ाई का बंदोबस्त कर दिया। लेकिन तकदीर को यह मंजूर नहीं था। मेरे जाने के बाद मां और परिवार की देखभाल कौन करेगा। कइयों की जिंदगी में आने वाले इस सवाल का जवाब वे भी नहीं तलाश सके और हरदा के ही होकर रहे। 80 साल की उम्र में भी सिलाई मशीन चलाने को वे खुद के चलने से जोड़कर बताते हुए उन्होंने कहा था कि, "यह नहीं चली तो मैं भी नहीं चल सकूंगा"।
ईश्वर उस्ताद जी को दीर्घायु बनाए रखे, यही प्रार्थना।
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