Wednesday, May 15, 2019

इस भारी भरकम मतदान के मायने। चिंतनीय है।

इस भारी भरकम मतदान के मायने।

बेमौसम बरसात के कारण और उसके नतीजे की समीक्षा आसान है। नेताओं के यकायक सज्जन नजर आने की वजह भी चुटकियों में समझी जा सकती है। प्री-पोल और पोस्ट-पोल सर्वे के रूझानों के पीछे का खेल समझना भी बायें हाथ का खेल है। यहां तक कि कई लोग तो कुमार शाहनी और मणि कौल की फिल्मों को भी फिल्मों के रूप में समझा देने में सफल रहते हैं। लेकिन लोकसभा चुनाव में देश से हटकर मध्यप्रदेश के मतदाता को बूझ पाना इस बार काफी कठिन लग रहा है। क्योंकि उसने गर्मी को धता बताई। चुनावी पंडितों के अनुमानों को झुठला दिया। राजनीतिज्ञों को हतप्रभ कर दिया। उसने यह किया कि तीसरे चरण तक हर क्षेत्र में बीते लोकसभा चुनाव के मुकाबले भारी-भरकम मतदान कर दिया। लगभग पांच से लेकर पन्द्रह फीसदी तक ज्यादा वोट डलने का मतलब खोजना आसान नहीं है। मध्यप्रदेश में पांच से लेकर पंद्रह प्रतिशत तक अधिक मतदान मायनेखेज है। लेकिन इसके मायने क्या हैं, यह 23 मई को ही पता चल सकेगा। शायद एकाध सीट पर मामला सन 2014 के जैसा ही रहा। बाकी जगह मतदाता गर्मी से तो नहीं हांफा, लेकिन दनादन दबे अपने बटन के चलते ईवीएम जरूर हांफ गयी होगी। खास बात यह कि इन छह चरणों में पश्चिम बंगाल को छोड़कर देश के अन्य हिस्सों में मतदान का प्रतिशत (इसमें मध्यप्रदेश शामिल नहीं है) बीते चुनाव जैसा ही रहा है। तो आखिर मध्यप्रदेश में क्या हो रहा है? मतदान करने के चुनावी नारों को तो इसकी वजह माना नहीं जा सकता

सरकारी पैसे पर चल रहे किसी गैर सरकारी संगठन के नौटंकीनुमा जागरूकता अभियान को भी इसका कारण नहीं गिनाया जा सकता। हां, किसी अंडर करेंट फैक्टर से इसे जोड़कर देख सकते हैं। तो सवाल यह कि यह करंट किसका है और किसे लगेगा। कमलनाथ सरकार को लगेगा या इसकी जद में नरेंद्र मोदी आएंगे? दोनो को झटके लगने की अपनी-अपनी वजह हैं। दैवयोग से कमलनाथ इसके ज्यादा नजदीक दिखते हैं। उनके लिए इन झटकों की शुरूआत राज्य में 29 अप्रैल को हुए पहले चरण के मतदान के बाद ही हो गयी थी। नाथ का अपना सरकारी तंत्र है। चुनावी राजनीति का पुराना अनुभव है। कहीं न कहीं उन्हें यह भान हो ही गया होगा कि किसान की कर्ज माफी का अधूरा वादा बहुत कुछ असर दिखा रहा है। वरना और कोई वजह नहीं थी कि दूसरे चरण के बाद किसानों की कर्ज माफी को लेकर राजनीतिक घमासान यकायक तेज हो गया। कांग्रेसी जितनी शिद्दत से शिवराज के घर पर कर्ज माफी के तथाकथित सही आंकड़े मय दस्तावेज छोड़कर आये, उतनी ही शिद्दत से इनसे संबंधित आंकडेÞ अखबारों को भी उपलब्ध कराये गये। व्यग्रता का आलम यह कि आचार संहिता की चिंता छोड़कर नाथ को प्रेस कांफ्रेंस लेकर कर्ज माफी पर सरकार की स्थिति स्पष्ट करना पड़ गयी।  राज्य में पहले और दूसरे चरण के बाद नाथ की छटपटाहट बढ़ना स्वाभाविक थी। इससे पहले शायद वे दो बातों से मुतमईन थे। पहला, कर्ज माफी की दस दिन के भीतर प्रक्रिया शुरू करना उनके हक में रहेगा।

दूसरा, राहुल गांधी की सालाना 72 हजार रुपए वाली स्कीम के चलते कांग्रेस को और  लाभ मिलेगा। किंतु संभवत: आशा के यह दोनो स्तंभ भरभराते हुए गिरने लगे। क्योंकि वे रेत की बुनियाद पर खड़े थे। कर्ज माफी का वादा करते समय राहुल गांधी ने इफ एंड बट जैसी कोई स्थिति सामने नहीं रखी थी। जबकि सत्ता संभालते ही हुआ यह कि सरकार ने मार्च, 2018 तक के ही किसान कर्ज को इस माफी की परिधि में लिया। वह भी यह कहते हुए कि केवल फसल ऋण को माफ किया जाएगा। इसका असर यह हुआ कि सरकार के कई मंत्री तक बगावती झंडा उठाकर यह मांग करने लगे कि कम से कम दिसंबर, 2018 तक का कर्ज माफ किया जाए। खाली वाला खजाना तथा उतावली वाली घोषणा के बीच नाथ केवल यह कर पाए कि उन्होंने बैंकों में करीब 13 सौ करोड़ रूपए जमा किए। जबकि कर्ज माफी इससे कई हजार करोड़ रुपए ज्यादा की होना है। नतीजतन, ऋण माफी के नाम पर किसानों को 1200 से लेकर कुछ हजार रुपए तक का ही लाभ मिल सका। कई ऐसे किसान सामने आए, जिन्होंने कर्ज माफी की इस अधूरी प्रक्रिया के प्रति नाराजगी जतायी है।  तो क्या यह मान लें कि मध्यप्रदेश में हो रही यह बम्पर वोटिंग राज्य सरकार के खिलाफ विशेषत: किसानों के गुस्से का नतीजा है? या फिर यह कमलनाथ सरकार ने जैसा वो दावा कर रही है कि संकल्प पत्र के जिन वचनों को उसने पूरा कर दिया है यह उसके प्रति लोगों का समर्थन है। लोगों में आक्रोश तो दनादन हो रही बिजली कटौती को लेकर भी है।

भोपाल में जहां पांच दशक बाद मतदान प्रतिशत ने साठ का आंकडा पार किया है, वहां तो माना जा सकता है कि दिग्विजय सिंह और हिंदू आतंकवाद की प्रतीक साध्वी प्रज्ञा ठाकुर एक विषय हो सकती हैं। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह भी है कि भोपाल लोकसभा के भी ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान ज्यादा बढ़ा है। खेती किसानी से ज्यादा वास्ता ग्रामीण आबादी का ही होता है।एकतरफा सोचना ठीक नहीं है। इसलिए यह तथ्य भी नहीं बिसराया जा सकता कि यह प्रतिशत मोदी सरकार के खिलाफ जनादेश वाला मामला भी हो सकता है। अनेकानेक मोर्चों पर यह सरकार भी असफल रही है। लेकिन मोदी की प्रति नाराजगी या समर्थन तो देश भर में एक जैसा ही होता, इसमें मध्यप्रदेश क्यों अलग जाता दिख रहा है?  दिमाग पर बहुत अधिक जोर डालने के बावजूूद मामला नाथ या गांधी के बराबरी वाली नाराजगी का प्रतीत नहीं हो पाता। मध्यप्रदेश के संदर्भ में इसकी एक वजह नजर आती है। यहां पंद्रह साल बाद बनी कांग्रेस की सरकार से भाजपा-विरोधियों की अपेक्षाएं अनंत तक पहुंच गयी थीं। खासतौर पर दस दिन में कर्ज माफी की बात ने जनमत को सर्वाधिक प्रभावित किया था।  राहुल गांधी के सर्वप्रथम इस बेहद लोकप्रिय वादे की पहली अग्नि परीक्षा लोकसभा चुनाव में ही होना थी। किंतु मामला हवा-हवाई घोषणा के अधूरे से भी कमजोर अनुपालन तक सिमट कर रह गया।

इसलिए नाथ सरकार का अधिकांश समय अपनी साख बचाने में गुजर रहा है और उसको इस  बात का अधिक समय मिल ही नहीं पा रहा कि वह मोदी सरकार की असफलताओं को पुरजोर तरीके से जनता के सामने रख सके। बचपन में किसी सत्संग में एक किस्सा सुना था। रात के समय एक समूह नदी किनारे पहुंचा। उस पार जाने के लिए वे लोग एक नाव में बैठ गये। घुप अंधेरी रात में वे बारी-बारी से चप्पू चलाते रहे। किंतु किनारा नहीं आया। सुबह हुई तो उन्होंने सिर पीट लिया। क्योंकि वे रात के अंधेर में यह देख ही नहीं सके थे कि नाव की किनारे से बंधी रस्सी को उन्होंने खोला ही नहीं था। तो हुआ यह कि रात भर चप्पू चलाने की मेहनत के बावजूद वे वहीं रहे, जहां थे। लोकसभा चुनाव के नतीजों को लेकर फिलहाल ऐसा ही अंधकारमय माहौल है। हर दल अपने-अपने हिसाब से चप्पू चला रहा है।  हां, 23 मई को यह पता चलेगा कि किसकी रस्सी बंधी ही रह गयी और कौन खुली रस्सी की दम पर दूसरे किनारे तक पहुंचने में सफल रहा है। यह रस्सी अधूरे वादों की गांठ वाली हो सकती है। सरकार की नाकामियों के चलते भी बंधी रह सकती है। यह रस्सी सफल चुनावी रणनीति के जरिए खोली जा सकती है। इससे नाव को किसी वाकई जन-हितैषी छवि के चलते भी मुक्त कराया जा सकता है। 23 मई के बाद जो दूसरी पार दिखे, उसे सलाम और जो इसी पार हांफता दिखेगा, उससे यही उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में ऐसी गलती फिर से उसका दुर्भाग्य नहीं  बनेगी। अंत में भारी मतदान करने वालों को भी सलाम। कोई पार्टी हारे, चाहे कोई जीते। कम से कम ऐसे मतदाताओं के चलते लोकतंत्र के सदा जीतने का उत्सव तो मनाया ही जा सकता है।

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