तो क्या हारना ऐसी असफलता है कि उसके साथ सब कुछ बदलना जरुरी होता है ? असफलता का अर्थ हर समय यह नहीं होता कि आपका रास्ता ही गलत था, हाँ, सामने वाले का तर्क बेहतर हो सकता है लेकिन यह भी जरुरी नहीं कि अगली बार सफलता के लिए आप सामने वाले जैसे बन जाएँ।
आपकी कोई नीति है , मान्यता है और उसके लिए आपने मेहनत की और पराजित हो गए। इसका अर्थ यह नहीं कि आपके विचार अप्रासंगिक हो गए। यदि ऐसा होता तो कर्बला के मैदान पर हज़रत मोहम्मद साहब के नवासे शहीद ना होते और आज भी उन्हें लोग याद न करते होते, अभिमन्यु चक्रव्यूह तोड़ने के लिए जाता ही नहीं।
अपने विचार के लिए यदि पराजय सहनी पड़े तो कोई गिला नहीं। किसी को पंथ निरपेक्षता नकाब लग सकती है तो किसी को देश की ताकत। जरुरी नहीं कि अपनी हार को जीत में बदलने के लिए आप भी पंथ निरपेक्षता की नीति से समझौता करें।
हो सकता है कि आज शौचालय के नाम पर मुफ्त में मिल गए कुछ हज़ार रूपये किसी के लिए अमूल्य हों लेकिन देश में बेरोजगारी मुद्दा रहेगा, पर्यावरण का क्षरण मुद्दा रहेगा, जाति-धर्म-लिंग के नाम पर अन्याय का मुद्दा रहेगा। अपने मुद्दों पर ताकत से खड़ा रहना आज की जरुरत है ये कोई ऐसा राडार नहीं जो बादल में छुपे जहाज को न देख सके।
हार के मायने केवल बदलाव नहीं होता- नेत्रत्व बदल दो, मुद्दे बदल दो, और बहुत कुछ बदल दो। असल में यह सब कहने वाले उस इंसान की तरह होते हैं जो कार में बज रहे संगीत पर अपनी जाँघों को पीट पीट कर खूब ताल दे लेते हैं लेकिन जब तबला सामने रख दो तो ढपोर संख् हो जाते हैं।
आत्म आकलन अनिवार्य है, नई नीति अनिवार है लेकिन हम दूसरों जैसे हो जाएँ यह अनिवार नहीं, यह बिलकुल गैर राजनीतिक है। खासकर उन महान विद्वानों के लिए नहीं जो कभी किसी संघर्ष में शामिल नहीं हुए और हार और जीत के कारणों और अमुक को बदल दो तो सब ठीक हो जाएगा जैसे दावे कर रहे हैं।
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